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भरमाये हैं .....

>> Wednesday, August 31, 2011




बावफा हो कर भी हम बेवफा कहलाये हैं 
अपनो ने ही सीने में नश्तर चुभाये हैं |

चाहा  तो नहीं था कि यकीं करें उनकी बातों पर 
पर फिर भी उनके वादे पर हमने धोखे खाए हैं |

सियासत चीज़ है बुरी उस पर क्या यकीं कीजै 
उनके किये  वादे बस मन को लुभाए हैं |

अँधेरे में बैठे हैं हम दर औ दीवार को थामें 
दामन नहीं है हाथ में , बस उनके साये हैं |

खामोशी से भी अब  क्यों कुछ करें इज़हार 
जुबां से कहे लफ़्ज़ों से कई बार भरमाये हैं ..



संगीता स्वरुप 


व्ही० एन० श्रीवास्तव जी द्वारा शब्दों में कुछ परिवर्तन के साथ गाई गयी यह गज़ल ...


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कृष्णावतार

>> Monday, August 22, 2011



कृष्ण ! 
कहा था तुमने 
जब जब होगी 
धर्म की  हानि 
तुम आओगे 
धरती पर ,
आज मानव 
कर रहा है 
तुम्हारा इंतज़ार 
हे माखनचोर 
कब लोगे 
तुम अवतार ?

तुम्हारा 
कोई रूप नहीं 
जाति नहीं 
देह नहीं 
सबके मन में 
तुम्हारा वास 
कब लोगे 
तुम अवतार ?






धरा पाप से 
मलिन हुई 
पीड़ा जनता की 
असीम हुई 
अन्याय का 
नहीं  कोई पारावार 
कब लोगे 
तुम अवतार ?

लीला तुम्हारी 
अपरम्पार 
भेजा एक कृष्ण 
हमारे द्वार 
करने दूर 
अत्याचार 
खत्म करने 
भ्रष्टाचार 
सब भक्तिभाव से 
स्वीकार रहे 
मन में आशा 
जगा रहे 
उसमें तुमको 
देख रहे 
जन्मदिन तुम्हारा 
मना रहे 
उमड़ पड़ा 
जनसमूह अपार 
ज्यों ही 
कृष्ण ने 
भरी हुंकार 
क्या यही है 
तुम्हारा नया  अवतार ? 




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मैं यशोधरा नहीं होती

>> Friday, August 12, 2011

आज रश्मि प्रभा जी की रचना उनके ब्लॉग पर पढ़ी ...सिद्धार्थ ही होता   उनके द्वारा लिखी गयी रचना की अंतिम पंक्तियों  को ले कर जो विचार मेरे मन में उपजे ..उनको यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ ...






पर मैं बुद्ध
इसे स्वीकार करता हूँ -

निर्वाण यज्ञ में
यशोधरा तू मेरी ताकत रही
दुनिया कुछ भी कहे
सच तो यही है,
यदि यशोधरा न होती
तो मैं सिद्धार्थ ही होता...

यशोधरा उवाच -----

कर ली तुमने 
कम कुछ 
आत्मग्लानि 
यह कह कर 
कि मैं न होती तो  
तुम रहते सिद्धार्थ  ही 
पर जानती हूँ कि 
तुमको तो 
हर हाल में 
बनना था 
गौतम बुद्ध ,
मैं नहीं बनती 
यदि तुम्हारी  अनुगामिनी 
तब भी , 
आज दे रहे हो 
श्रेय मुझको 
तो कर लेती हूँ 
शिरोधार्य 
जब कि 
जानती हूँ कि 
गर बनती बाधा 
तब भी तुम करते 
इस संसार का उद्धार 
नारी हूँ भारतीय 
इसी लिए
पगबाधा न बन 
पथ प्रशस्त करती रही 
मन की आहों को 
अंदर ही अंदर 
मैं ध्वस्त करती रही ,
उठा लीं मैंने 
सारी जिम्मेदारियां 
जो थीं कभी तुम्हारी 
खोल दिए सारे 
वातायन 
जिसमें तुम्हें 
घुटन  होती थी 
यदि नहीं करती ऐसा 
तो , तुम तो 
फिर भी होते 
गौतम 
पर मैं 
यशोधरा नहीं होती ..


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संवेदनाओं की घास

>> Saturday, August 6, 2011


grass

मन की घनेरी 
घास पर
मेरी सोच के  
कदमों से  ,
पगडंडियाँ तो 
बन जाती हैं 
अनायास ही ,
क्यों कि
आँख बंद कर भी 
सोच चलती रहती है 
एक ही रास्ते पर 
निरन्तर 
और चलने 
लगते हैं सभी 
उस पर 
बिना किसी 
प्रयास के 
और फिर 
खिंच जाती है 
एक साफ़ 
लकीर मेरे 
मन की ज़मीन पर 
जिस पर 
अब संवेदनाओं  की 
घास नहीं उगती ...


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