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सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है

>> Saturday, June 4, 2011




मन की बात मन में ही दबी सी जाती है 
बात लबों  तक आकर भी निकाली  नहीं  जाती है 

आज हो गया है  , दिल मेरा पत्थर 
अब तो फूलों की महक भी सही नहीं जाती है .

मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की 
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है .

दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से 
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है 

मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा 
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है 


सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था 
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है 


81 comments:

vandana gupta 6/04/2011 7:40 PM  

आज इतनी उदासी किसलिये? क्या हो गया है ? बेहद दर्दभरी गज़ल है दिल को छू गयी।

SANDEEP PANWAR 6/04/2011 7:41 PM  

नमस्कार जी,
ये कविता बहुत पसंद आयी है,
फ़िर भी दग्ध का अर्थ नहीं समझ पाया हूं

kshama 6/04/2011 7:47 PM  

सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
Kya gazab likha hai!

रश्मि प्रभा... 6/04/2011 7:49 PM  

मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है
kuch na kahun , mahsoos karun to chalega n sangeeta ji

मनोज कुमार 6/04/2011 7:57 PM  

दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है
इन पंक्तियों से तो यही पता चलता है कि आपका मन दग्ध (पीड़ित) है किसी की बातों से, फिर भी उसकी चुप्पी आपको अच्छी नहीं लग रही। इस भाव भूमि पर लिखी गई इस रचना द्वारा मन की गहराई, उसका अन्तर्द्वन्द्व, उत्पीडन, मान-अपमान आदि का और भावुक मन की संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति दी गई है

रजनीश तिवारी 6/04/2011 8:03 PM  

दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है
dard bhare sher ...bahut sundar gazal

Anju (Anu) Chaudhary 6/04/2011 8:05 PM  

दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है


दर्द भरी ग़ज़ल ....बहुत खूब

Suman 6/04/2011 8:08 PM  

दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातोंसे
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है !
bahut sunder har pankti.......

shikha varshney 6/04/2011 8:09 PM  

उफ़...दी ! ..क्या कहूँ समझ नहीं पा रही हूँ.दर्द जैसे छलका पड़ रहा है शब्दों से.ऐसा ही लगता है कितनी बार पर उस एहसास को इतने सरल और सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त करना हर एक की बस की बात कहाँ होती है.
बहुत ही दर्द भरी रचना है..

प्रवीण पाण्डेय 6/04/2011 8:16 PM  

बेहतरीन अभिव्यक्ति।

निवेदिता श्रीवास्तव 6/04/2011 8:19 PM  

दी ,
बेहद खूबसूरत ग़ज़ल ..... दर्द ने ही शब्दों का आवरण ओढ़ लिया है ...... सादर !

Vaanbhatt 6/04/2011 8:24 PM  

खूबसूरत ग़ज़ल...सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था...सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है...

devendra gautam 6/04/2011 8:34 PM  

मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है
....bhavnaon ke behtar abhivyakti ...bahut khoob
----devendra gautam

Roshi 6/04/2011 8:53 PM  

dard bhari gazal..............

Er. सत्यम शिवम 6/04/2011 9:04 PM  

दर्द में सनी बहुत ही मार्मिक गजल....सुंदर अभिव्यक्ति।

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) 6/04/2011 9:27 PM  

मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती
संगीता जी ,
शब्द-मर्म का चमत्कार लख ,कलम हुई है मौन.
इस कविता पर लिखे टिपण्णी ऐसा ज्ञानी कौन ?

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' 6/04/2011 9:58 PM  

ये भी ज़िन्दगी का एक रंग है, जिसे आपने प्रभावशाली शब्दों में बांधा है.

Unknown 6/04/2011 10:01 PM  

मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है

बेहद खूबसूरत शब्द नहीं शेर , आपकी लेखनी का बेसब्री से इंतज़ार रहता है, शब्दों से मन झंझावत से भर जाता है यही तो है कलम का जादू बधाई

Sadhana Vaid 6/04/2011 10:02 PM  

बहुत मर्मस्पर्शी रचना है संगीता जी ! आपके दिल की टीस की अनुभूति अपने मन पर भी महसूस कर पा रही हूँ ! बहुत ही खूबसूरत भावभूमि पर लिखी गयी एक बहुत ही कोमल रचना ! बधाई स्वीकार करें !

Anupama Tripathi 6/04/2011 10:14 PM  

बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना ..
दर्द भरे भाव इतनी खूबसूरती से उकेरे हैं ...
मन जुड़ सा गया कविता के दर्द से ..!!

डॉ. मोनिका शर्मा 6/04/2011 10:45 PM  

दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है

मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है

बहुत ही सुंदर .....प्रभावित करती बेहतरीन पंक्तियाँ ....

Dr (Miss) Sharad Singh 6/04/2011 10:49 PM  

मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है
सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है


बहुत सुन्दर भावपूर्ण शेर...
पूरी ग़ज़ल मन को छू गई.

Maheshwari kaneri 6/04/2011 10:59 PM  

मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है
सुन्दर अभिव्यक्ति् सुन्दर भाव…..….धन्यवाद

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद 6/04/2011 11:40 PM  

पानी पर लकीर खींची नहीं जाती है ॥

चला बिहारी ब्लॉगर बनने 6/05/2011 12:32 AM  

संगीता दी!
आपके एक्सप्रेशन का कायल हूँ मैं.. और इस कविता में भी भाव स्वतः फूट रहे हैं!!

M VERMA 6/05/2011 5:31 AM  

सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
लिखने वाले भला कब मानते हैं वे फिर भी लिख ही जाते हैं

वाणी गीत 6/05/2011 6:11 AM  

दग्ध है मन फिर भी चुप्पी सही नहीं जाती है ...और जलना चाहता है

मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है
सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है ..

एक- एक पंक्ति जैसे दर्द के गुबार और अश्कों के समन्दर में डूब का लिखी ..इतना दर्द कहाँ से लाईन ...
मार्मिक अभिव्यक्ति पोर पोर को झिंझोड़ गयी जैसे ...

श्यामल सुमन 6/05/2011 6:50 AM  

मानव जीवन में उपस्थित संवेदनाओं की संगीतात्मक प्रस्तुति संगीता जी - सुन्दर

सादर
श्यामल सुमन
+919955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

Kunwar Kusumesh 6/05/2011 7:02 AM  

क्या बात है. भावों के अद्भुत उद्गार.

ashish 6/05/2011 9:46 AM  

"क्यू छलक रहा दुःख मेरा, उषा की मृदु पलकों में
हाँ उलझ रहा सुख मेरा, निशा की घन अलकों में "

रचना से संप्रेषित भाव , मन के द्वन्द को उकेरते है .

ब्लॉ.ललित शर्मा 6/05/2011 11:09 AM  

गर्म हवा का झोंका ऐसा आया।
पल में ओझल हुई शीतल छाया॥

आज कुछ अलग ही रंग देखने मिला

आभार

महेन्‍द्र वर्मा 6/05/2011 11:55 AM  

मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है

निराशा के क्षण भी जीवन के लिए सहायक होते हैं।
दुख के अंदर सुख की ज्योति, दुख ही सुख का ज्ञान।

ग़ज़ल हृदयस्पर्शी है।

ZEAL 6/05/2011 12:46 PM  

can feel the pain hidden in this beautiful ghazal.

mridula pradhan 6/05/2011 1:43 PM  

मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है .
dukh ka izhaar bhi itni sunderta se ki hai....maan gaye.

प्रतिभा सक्सेना 6/05/2011 3:26 PM  

सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
वाह,संगीता जी ,
बस चुप रह गई हूँ मैं तो !

Aruna Kapoor 6/05/2011 5:15 PM  

रचना बहुत सुंदर है...स्वागत!

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') 6/05/2011 7:02 PM  

वाह दी... सुन्दर....
“कुछ एहसास बदहवास से लिपट गये
कुछ दर्द ओढ़कर गज़ल में सिमट गये.”

सादर...

Roshi 6/05/2011 10:07 PM  

dard se ootprot gazal................

Dr Varsha Singh 6/05/2011 11:37 PM  

शब्द-शब्द संवेदनाओं से भरी मार्मिक रचना ....

मन की उड़ान !!!! 6/06/2011 12:16 AM  

कितना द्वन्द्व कितनी पीड़ा है इन पंक्तियों में..
एक तरफ सदियों से हुए शोषण के संकेत तो दूसरी ओर इसके सतत प्रभाव!!! जिसने न सिर्फ मौन की स्थिति पैदा कर दी है बल्कि एक घुटन को जन्म दिया है.यहाँ विरोध की बात तो दूर शब्द मुँह में ही कैद हो गए हैं. सांस चल रही है मन मृत है. मस्तिष्क में कुछ सिकुड़ता हुआ सा एहसास शायद दमन का!! एक अवसाद जिससे उबर पाना मुश्किल हो.ऐसे में क्या करें, किससे कहें और वह भी ऐसी बात जिसकी कोई सुनवाई न होने वाली हो......
समाज में नारी की स्थिति पर उत्तम विमर्श!!!!
इसके अलावा कविता में चित्रों का संयोजन भी उत्तम है. एक तरफ गुलाबी मादकता है तो दूसरी तरफ प्यासा,तरसता रेगिस्तान....ये तस्वीरें जाने-अनजाने नारी की, क्रमशः वाह्य और आतंरिक स्थिति की द्योतक बन गयी हैं....

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ 6/06/2011 2:15 AM  

'सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है'

संगीता जी!
आप अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में पूर्णतः सफल रहीं फिर भी मेरा कहना है कि-
'इतनी उदासी क्यों भला? और यह निराशा क्यों भला? जीना है जब ज़िन्दगी तो फिर न आशा कयों भला?'

निर्मला कपिला 6/06/2011 11:10 AM  

अपका बहुत बहुत शुकीया आपने मुझे मेल दुआरा जो शुभकामनायेंभेजी तभी आज दोबारा लिखने के लिये सक्षम हो पाई हूँ आपकी रचना हमेशा की तरह लाजवाब है मगर उदासी के बाद खुशियाँ ही तो आयेंगी! शुभकामनायें।

दिगम्बर नासवा 6/06/2011 1:01 PM  

मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है ...

कभी कभी मन की उदासी ऐसा लिखने को मजबूर करती है ... बहुत खूब ... दर्दभरी गज़ल ...

Bhola-Krishna 6/06/2011 4:15 PM  

सरस ,प्रेरणादायक हिन्दी गजल गेय भी! कोई धुन भी बनी होगी ? काश हम सुन पाते ! ये गजल पढ़ कर हमने भी इसमें एक शेर जोड़ने की जुर्रत की है !
बात सच है,छुपाना ही इसे बेहतर है ,
क्यूंकि सच बात किसी से न सही जाती है

Sapna Nigam ( mitanigoth.blogspot.com ) 6/06/2011 11:44 PM  

आपकी कवितायेँ पढ़ कर लगता है कि पढ़ते ही रहें .

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) 6/07/2011 12:41 AM  

संगीता जी,
आपके निश्छल स्नेह ने इस कवि दम्पति को (भावुक जोड़े को) अभिभूत कर दिया है.आभार कहें तो स्नेह का कहीं न कहीं अपमान होता है,कुछ न कहें तो शिष्टता लज्जित होती है.आप ही बताएं ,क्या करें ?
निगम दंपत्ति

Vivek Jain 6/07/2011 2:02 AM  

बहुत बढ़िया, बेहद दर्दभरी गज़ल!

विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

www.navincchaturvedi.blogspot.com 6/07/2011 10:09 AM  

सुंदर प्रस्तुति आदरणीया संगीता जी, बधाई स्वीकार करें

Urmi 6/07/2011 10:38 AM  

मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है .
दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है..
वाह! अद्भुत सुन्दर रचना! कमाल की पंक्तियाँ! शानदार और ज़बरदस्त प्रस्तुती!

सदा 6/07/2011 11:25 AM  

आज हो गया है , दिल मेरा पत्थर
अब तो फूलों की महक भी सही नहीं जाती है .

मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है .

बेहतरीन शब्‍द रचना ।

रेखा श्रीवास्तव 6/07/2011 4:10 PM  

सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है

इन पंक्तियों ने दिल को छू लिया. क्या लिखा है आपने.

Anonymous,  6/07/2011 9:46 PM  

संदीप जी -- दग्ध -- जो जल गया हो / जल रहा हो ...

रचना दीक्षित 6/08/2011 12:01 PM  

उफ़ इतना दर्द... अच्छा है कलम के जरिये बाहर आ गया अच्छी प्रस्तुति
आभार

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ 6/08/2011 12:49 PM  

संगीता जी! आपने अभी तक मेरा ब्लॉग फॉलो नहीं किया और न ही मेरी रचनाओं पर आपकी कोई प्रतिक्रिया आ रही है आख़िर मुझमें क्या कमी दिखी? यदि सुधार सम्भव हो तो बताएं हम पूरा प्रयास करेंगे दूर करने का

संजय भास्‍कर 6/08/2011 4:34 PM  

बेहद खूबसूरत ग़ज़ल....संगीता जी!

संजय भास्‍कर 6/08/2011 4:34 PM  

बहुत ही दर्द भरी रचना है.....!

योगेन्द्र मौदगिल 6/09/2011 9:01 AM  

bahut badiya.....vastav me gazalnuma....sadhuwaad

www.navincchaturvedi.blogspot.com 6/09/2011 11:59 AM  

मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है

आ क्या बात कह गई हैं आप...........

Madhukanta Shringi 6/09/2011 3:12 PM  

मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है .


दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से
kya abhivkati hai!kitne sunder shabdo me aapne vo man:sthiti mukhar ki jise kisi karibi dwara dil todne par mahsoos karne-wala hi janta hai par siskiyo me dub jata hai bol nahi pata
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है
aur phir bhi ye pyar-bhara virodhabhas.ye to vo kamal hai jo har pyar karnewali patni ke bas ki hi baat hai
मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
kya aaapki virodhabhas alnkar me experty hai ?
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है
kamal hai...!
सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
yahi vo line thi jisne mujhe barbas hi rok liya-laga ki vastav me samudra ashko se hi bane honge,isiliye itne vishal hai na kabhi sukhte hai
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
aapke jitna achchha to nahi par mere blog par visit karke dekhiye
Madhukantakablog

Rachana 6/09/2011 7:53 PM  

सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है

lajavab kamal bemisal kya bat hai wah wah .
rachana

ज्योति सिंह 6/10/2011 1:50 AM  

सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
bahut khoobsurat hai har sher .

Satish Saxena 6/10/2011 9:15 AM  

सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है ...

कभी कभी मनस्थिति में ऐसी दारुण उदासीनता महसूस होती है ...
बेहद दर्दनाक है यह ....
शुभकामनायें आपको !

Satish Saxena 6/10/2011 9:15 AM  

सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है ...

कभी कभी मनस्थिति में ऐसी दारुण उदासीनता महसूस होती है ...
बेहद दर्दनाक है यह ....
शुभकामनायें आपको !

रविकर 6/10/2011 10:48 AM  

इतनी उदासी किसलिये? आशा का संचार जरुरी है |
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है---

ZEAL 6/10/2011 5:19 PM  

.

मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा
आँखों में अपनी नमी भी अब झेली नहीं जाती है ...

very appealing lines Sangeeta ji . I am short of words to praise this wonderful couplet.

Regards,

.

Kailash Sharma 6/10/2011 7:50 PM  

सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है ...

बेहद मार्मिक गज़ल..हरेक शेर अपने में एक दर्द की दास्तां समेटे है..लाज़वाब..आभार

Barun Sakhajee Shrivastav 6/10/2011 10:28 PM  

रेत पर भी अब लिखी तेहरीर नही जाती है, बहुत खूब।

Sapna Nigam ( mitanigoth.blogspot.com ) 6/10/2011 10:49 PM  

मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है .

यदि संघर्ष जारी है तो जंग जीती ही जाएगी.
इन पंक्तियों ने छत्तीसगढ़ के कवि,गायक,गीतकार की पंक्तियों की याद दिला दी

बढ़ते क़दम हों तो उत्कर्ष जीवन
भटके कदम तब तो अपकर्ष जीवन
मिल जाये जो ध्येय तो हर्ष जीवन
विपदायें हों तो है संघर्ष जीवन.

k.joglekar 6/10/2011 11:08 PM  

nmaskar. aapaki kafi rachanaye padhi. bahut sundar samvedanshil rachnaye. achhi lagi. kabhi vakt mile to blog par aayen.

Amrita Tanmay 6/11/2011 5:30 PM  

बहुत ही भाव भीनी कविता दिल से निकल कर दिल में प्रवेश करती हुई

पूनम श्रीवास्तव 6/11/2011 8:26 PM  

Adarniya Sangeeta di,
bahut hi hridaysparshi panktiyan hain apki..khaskar yah pankti..

सूख गया है समंदर भी जिसे कभी अश्कों ने भरा था
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
hardik shubhkamnayen.
Poonam

Anonymous,  6/12/2011 2:30 PM  

काफ़ी अच्छाi लिखा है

http://navkislaya.blogspot.com/

Udan Tashtari 6/12/2011 11:06 PM  

बहुत भावपूर्ण रचना...

मीनाक्षी 6/12/2011 11:35 PM  

मौन को कुरेदा तो न जाने कितना गुबार उठेगा --मन को गहरे तक छू गई....बेहद मर्मस्पर्शी..

Anonymous,  6/13/2011 3:25 PM  

गहन भावों का समावेश हर पंक्ति में ।

देवेन्द्र पाण्डेय 6/13/2011 3:58 PM  

मझधार में कर रही हूँ मैं कोशिश तैरने की
पर लहरों से अब लड़ाई लड़ी नहीं जाती है .
..दर्द भरी गज़ल का दर्द भरा शेर।

sumeet "satya" 6/14/2011 3:39 AM  

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

अनामिका की सदायें ...... 6/22/2011 11:32 PM  

beshak na likhi jaaye sukhi rait par tahreere...magar us par pade nishan apna itihaas bayaan karte hain....aur fir vahi chakr...ki itihas par hamara aaj khada hai aur aaj par hamara aane wala kal. To ant-teh fir vahi soch....fir vahi koshish shuru ho jati hai insaan ki jaisa ki uska swabhaav hota hai.

Anjana Dayal de Prewitt (Gudia) 6/23/2011 2:19 AM  

दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है

wah! sach hai pyar ho to esa hi hota hai...

Unknown 4/17/2021 1:16 AM  

दग्ध हो गया है मन तेरी तपिश भरी बातों से
फिर भी तेरी ये चुप्पी मुझसे सही नहीं जाती है

दीदी , यही तो नारी के अन्तर्मन की व्यथा है कि हर विषमता के वावजूद उसमें झुकाव होता है, कोमलता होती है ।
सूखी रेत पर अब कोई तहरीर लिखी नहीं जाती है
बेशक
पर कोरे कागज पर दर्द की स्याही से लिखी मनोदशा ने दिल जरुर छू लिया ।

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