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सुडोकू .....और ज़िंदगी

>> Tuesday, August 17, 2010




सुडोकू खेलते हुए 

मैं अक्सर 

सोचने लगती हूँ 

ज़िंदगी  के बारे में ,

और मुझे 

लगने लगता है कि

ज़िंदगी भी 

सुडोकू ही है .

जहाँ 

हर खाना 

निश्चित है 

एक सही आंकड़े 

के लिए 

एक गलत नंबर 

और खेल 

रह जाता है 

अनसुलझा हुआ ...





48 comments:

Udan Tashtari 8/17/2010 6:22 PM  

सुडोकु में कम से कम दूसरा अखबार उठाकर भर सकते है मगर जिन्दगी तो मुई वो सुविधा भी नहीं देती.

बहुत बढ़िया ख्याल!!

Vinashaay sharma 8/17/2010 6:24 PM  

बिल्कुल सच ।

M VERMA 8/17/2010 6:29 PM  

वाकई एक गलत निर्णय जिन्दगी का रूख बदल देती है.
सुन्दर साम्य दर्शाया है

vandana gupta 8/17/2010 6:38 PM  

यही तो ज़िन्दगी है मौका देती ही नही ।
एक बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति………।

रेखा श्रीवास्तव 8/17/2010 6:44 PM  

जिन्दगी ये मौका कब देती है कि हम जहाँ गलत हों उसे फिर से मिटा कर दूसरे रंग भर लें. सुडोकू की कमान हमारे हाथ में है और हमारी जिन्दगी की किसी और के. वैसे सोचा बहुत अच्छा है.

shikha varshney 8/17/2010 7:08 PM  

उफ़ कुछ तो छोड़ दिया होता दी! :)अब सुडोकू भी ..
वैसे इसे तोडू फोडू ख्याल आते कहाँ से हैं आपको?

संजय भास्‍कर 8/17/2010 7:32 PM  

हर बार की तरह शानदार प्रस्तुति

मनोज कुमार 8/17/2010 7:35 PM  

मनुष्य होने और बने रहने की विडंबना सुडोकु के माध्यम से इस कविता में मौज़ूद हैं।

राजकुमार सोनी 8/17/2010 7:42 PM  

खेल में मेरी किसी तरह की रूचि कभी नहीं रही
फिर भी जिस खेल का आपने जिक्र किया है उसे मैं जानता हूं क्योंकि हम लोग अखबार में उसे छापते हैं
ऊपर समीर जी की बात से सहमत हूं
और शिखाजी ने भी जो टिप्पणी की है उससे भी सौ फीसदी सहमत हूं.
सच तो यह है कि आप से कुछ नहीं बच सकता और कोई नहीं बच सकता.

सुज्ञ 8/17/2010 7:53 PM  

दीदी,
शानदार उपमा, ज़िन्दगी के लिये,
ज़िन्दगी के एक खाने में भरी गलत संख्या…गलत दिशा है।

समयचक्र 8/17/2010 8:11 PM  

बहुत सटीक कविता

आभार

Deepak Shukla 8/17/2010 8:15 PM  

संगीता दी...

सुडोकू भी जीवन सा है...
आडा तिरछा जोड़ लगाना...
कुछ खाने खाली रखने हैं...
गम और ख़ुशी के फूल सजाना...

सुन्दर कविता...हमेशा की तरह....

दीपक.....

अनामिका की सदायें ...... 8/17/2010 8:25 PM  

बहुत बढ़िया तुलनात्मक प्रस्तुति दी है जो सोचने पर मजबूर करती है.

मैं सोचा करती थी की अब तक ये आपका प्रिये सुडोकू आपकी कलम से कैसे बचा रह गया....हा.हा.हा.पर कहाँ बच पाया...आखिर जिंदगी के घेरे में और आपकी कलम के दबाव में आ ही गया. हा.हा.हा.

प्रशंसनीय माध्यम.

रश्मि प्रभा... 8/17/2010 8:26 PM  

सुडोकू और ज़िन्दगी... साम्यता तो है

चला बिहारी ब्लॉगर बनने 8/17/2010 8:52 PM  

संगीता दी... अऊर सोचने वाला बात ईहो है कि बनाने वाला हरेक के लिए अलगे अलगे सुडोकू बनाया है... अखबार जईसा नहीं कि जऊन आप बना रहे हैं, ओही हम भी... डीएनए के जइसा… आपका नजर जिंदगी को कहाँ कहाँ से पकड़ लेता है, पता लगाना मोस्किल है. अऊर हर जगह से जिंदगी एगो अलगे खुबसुरती लेकर आता है. बहुत सुंदर!!

Avinash Chandra 8/17/2010 9:28 PM  

सुडोकू!!!!!
गज़ब.... यों जिन्दगी उतनी आसान नहीं ये भी अच्छा है.

मेरी फरमाइश है "सांप-सीढ़ी"....कभी बहुत पसंद था ये मुझे...शायद युगों पहले. :) :)

Mahfooz Ali 8/17/2010 10:14 PM  

बहुत अच्छी .... इंटेलेक्चुयल पोस्ट.... ममा....एकदम यूनिक....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 8/17/2010 10:15 PM  

वाह..!
आपने तो बहुत नया प्रतीक लेकर सुन्दर रचना गढ़ दी!
--
बहुत-बहुत बधाई!

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' 8/17/2010 10:24 PM  

ज़िंदगी भी...सुडोकू ही है .
जहाँ....हर खाना....निश्चित है....
जी, आधुनिक खेल के साथ
ज़िन्दगी को इस तरह जोड़ा, कि बस...
वाह....मुबारकबाद.
जनाब याकूब मोहसिन का एक शेर हाज़िर है-
ज़िन्दगी क्या है जान जाओगे
रेत पर लाके मछलियां रख दो..

Rohit Singh 8/18/2010 3:24 AM  

एकदम जबरदस्त तुलना....एक खाना गलत औऱ खेल खत्म....यही जीवन है..

Unknown 8/18/2010 3:25 AM  

अरे वाह....
दी आपने जिंदगी की गणित बड़ी ही सुन्दरता से बयां की है ...
बहुत अच्छी लगी आपकी रचना

अनूप शुक्ल 8/18/2010 6:31 AM  

अच्छा साम्य है। वैसे जिन्दगी भी भरपूर गलतियां करने का मौका देती है।

मुदिता 8/18/2010 8:25 AM  

दीदी...
सटीक....हर खाना एक निश्चित नंबर से ही भरा जा सकता है... लेकिन जिंदगी इसीलिए शायद उन्सुल्झी रह जाती है क्यूंकि यहाँ बिना सोचे समझे किसी भी खाने में कोई भी अंक लिख दिया जाता है...

बहुत सुन्दर

Satish Saxena 8/18/2010 8:43 AM  

बाप रे बाप आप भी इसमें राम जाती हैं !
मुझे इस गेम से चिढ है ...मगर लगता है कि कुछ तो है इसमें जो लग घंटों एक मुद्रा में इस पर धूनी रमा सकते हैं ! शायद समय काटने के लिए बढ़िया साधन ! हमें भी सीखिए ना ...

प्रतिभा सक्सेना 8/18/2010 11:21 AM  

सुडोकू में तो फिर भी सुधार लेने की गुंजाइश है,संगीता जी!
- प्रतिभा.

rashmi ravija 8/18/2010 12:19 PM  

अक्सर यही होता है...सही खाने में गलत अंक...और फिर सुलझाते रहो ज़िन्दगी भर...
बड़ी नायाब अभिव्यक्ति है

निर्झर'नीर 8/18/2010 12:55 PM  

hamesha ki tarah unique khayal aapki upma laajavab hoti hai har khayal unchhua

Parul kanani 8/18/2010 12:57 PM  

jindagi ka ganit aap bakhoobi samjhti hain..!

Aruna Kapoor 8/18/2010 2:37 PM  

....सही में जिंदगी ऐसी ही है!.... आपकी सोच से मै सहमत हूं!

पी.सी.गोदियाल "परचेत" 8/18/2010 3:14 PM  

ज़िंदगी भी
सुडोकू ही है .
जहाँ
हर खाना
निश्चित है
एक सही आंकड़े
के लिए
एक गलत नंबर
और खेल
रह जाता है
अनसुलझा हुआ .

वाह ! क्या सुन्दर बात कह दी !

Unknown 8/18/2010 3:23 PM  

बिलकुल सही कहा आपने.

प्रवीण पाण्डेय 8/18/2010 8:20 PM  

सुडोकू खेलता हूँ और कविता भी ल्खता हूँ पर इतनी अर्थपूर्ण कविता आप ही लिख सकती हैं। प्रणाम।

विनोद कुमार पांडेय 8/18/2010 9:28 PM  

एक अलग सोच के साथ बनी हुई एक सुंदर रचना..सुडोकू और जिंदगी क्या खूबसूरत भाव प्रस्तुत किया आपने..संगीता जी बहुत सुंदर रचना..बधाई

मनोज भारती 8/18/2010 11:26 PM  

सुडोकू के माध्यम से आपने अनसुलझी जिंदगी के मर्म को समझा दिया है ।

रानीविशाल 8/19/2010 3:42 AM  

Waah! bahut sundar
Zindagi aisi paheli hai jise jivan ke kai mod par kai tarikon se paribhashit kiya jaata hai lekin...koi paribhasha purna nahi ho pati ...kyuki achanak hi isaki koi nai vidha hamare samane aa khadi hoti hai.
bahut sahi manak parstut kiya...Aabhar

कविता रावत 8/19/2010 1:02 PM  

Sudako ke madhyam se jeewan ka ek aham sandesh deti aapki rachna man mein gahre utarti hai..

दीपक 'मशाल' 8/19/2010 5:35 PM  

जिन्दगीssssssssssss कैसी है सुडोकू हायssssssss.. कभी तो हमें ये हंसाये... कभी....

Prem Farukhabadi 8/19/2010 6:02 PM  

एक बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति!

डॉ. मोनिका शर्मा 8/20/2010 12:31 AM  

चंद पंक्तियों में पूरी जिंदगी
का खेल समझा दिया आपने
बहुत ही सुंदर......

Arvind Mishra 8/20/2010 5:43 AM  

सही तुलना -जीवन सचमुच सुडोकू जैसा ही जटिल है !

Sadhana Vaid 8/20/2010 6:09 AM  

बहुत ही सारगर्भित रचना लिख डाली संगीताजी ! वैसे यह मेरा बहुत ही पसंदीदा खेल है ! ज़रा सा भी समय मिलता है तो इसीके साथ उलझती सुलझती रहती हूँ ! लेकिन यह भी सच है जीवन के सुडोकू में एक बार बिना सोचे समझे गलत नंबर भर दिया तो जीवन भर गुत्थी अनसुलझी ही रह जाती है ! इतनी शानदार और सशक्त रचना के लिये बधाई !

Anamikaghatak 8/20/2010 9:08 AM  

बहुत ही सुन्दर लिखा है आपने .........सारी कविताएं अत्यंत सुन्दर........बधाई

शारदा अरोरा 8/20/2010 12:19 PM  

बहुत बढ़िया , एक नंबर गलत तो जिन्दगी का गणित गलत हो जाता है , सुडोकू में तो मिटा कर दुबारा लिख सकते हैं मगर जिन्दगी न तो रील रिवाइंड करने की मोहलत देती है न किसी रबर से मिटाने की । आपने एक मामूली पज़ल में जिन्दगी का फलसफा ढूंढ लिया ।

Urmi 8/20/2010 4:58 PM  

बहुत ही सुन्दर लिखा है आपने ! बिल्कुल सही कहा है!

manju mishra 8/22/2010 2:35 AM  

एक गलत नंबर

और खेल

रह जाता है

अनसुलझा हुआ ...

एकदम सही .... बस एक ग़लती और ज़िन्दगी के नतीजे बदल जाते हैं

रचना दीक्षित 8/23/2010 6:35 PM  

सुडोकू और ज़िन्दगी!!!!! बिल्कुल सच

Asha Joglekar 8/29/2010 6:49 AM  

सुडोकू और जिंदगी बहुत बढिया ।

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