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वेदना

>> Monday, July 20, 2009



अंतस की गहराई से
जब आह निकलती है
विलपत हो शब्दों में
तब वो रचना बनती है .

शब्दों को यूँ बाँध - बाँध कर
मन को बांधा करते हैं
अश्कों के सागर पर भी
यूँ बाँध बनाया करते हैं.

बंध जाता है बाँध जब
सागर में गोता खाते हैं
डूब - डूब कर एहसासों के
मोती लाया करते हैं .

मुट्ठी भर - भर कर जब मोती
आ जाते सागर के बाहर
उनकी माला पिरो - पिरो कर
खुद को बहलाया करते हैं .

बहला कर खुद के मन को
फिर नयी चेतना जगती है
स्वयं से ऊपर उठ कर फिर
नयी कल्पना सजती है .

नयी कल्पना फिर से मुझको
ले जाती है गहराई में
और गहराई तक जा कर
फिर से आह निकलने लगती है.

इन आहों के आने - जाने से
मन में पीडा होती है
हर नए सृजन के लिए शायद
वेदना भी ज़रूरी होती है.

2 comments:

दिगम्बर नासवा 7/21/2009 12:40 PM  

इन आहों के आने - जाने से
मन में पीडा होती है
हर नए सृजन के लिए शायद
वेदना भी ज़रूरी होती है.

सचमुच कुछ सृजन करने के लिए ......... पीडा से बड़ी प्रेरणा कोई नहीं ............. आह शब्दों में बदल जाती है और रचना बन कर कागज़ में उतर आती है

अनामिका की सदायें ...... 9/22/2009 7:03 PM  

Sangeeta ji.
ना मिलता गम तो बर्बादी के अफ़साने कहा जाते..
यही लाइंस याद आ गयी इस वेदना को पढ़ कर..
बहुत खूबसूरत रचना..

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