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आख़िर में

>> Thursday, September 25, 2008

आज मेरे अल्फाज़ मुझसे
रूठ से गए हैं
आज मेरे अहसास
जैसे घुट से गए हैं
यूँ लगता है मुझे ऐसा
कि आज मेरी सोच के
सारे के सारे ताने - बाने
टूट से गए हैं ।
भावों को भी कोई लहर
मिलती नही है
ख़्वाबों का भी जैसे
कोई आसमान नही है
तारों की भी चाहत
ख़त्म हो चुकी है
चाँद भी हाथ से
फिसल सा चुका है
चाहती हूँ कि कुछ तो
कह पाऊँ ख़ुद से ही मैं
पर शब्द हैं कि सब
बिखरे से पड़े हैं
सहेजती हूँ इन बिखरे मोतियों को
कि पिरो कर ही कोई माला बना दूँ
आंखों में पानी उतर आता है
कि सुईं भी पिरो नही पाती हूँ ।
ग़मगीन सी भला हूँ क्यों मैं ?
ज़िन्दगी तो यूँ ही चलती जाती है
सोच की आंधी जब होती है तेज
तो हवा का हर रुख वो बदल पाती है
छोड़ दिया है मैंने वक्त के हाथों
इस कश्ती को ज़िन्दगी के सागर में
अब इसकी किस्मत में चाहे थपेडे हों
या सुकूं मिले साहिल पे आकर आख़िर में .

3 comments:

masoomshayer 9/26/2008 10:16 AM  

bahut bahut achha hai shabd tum se door nahee jaye honge tum kaheen sambhal ke rakh ke bhool gayeen shayed

tumhe likhna hee hai lagatar

Anil

"Nira" 9/26/2008 7:27 PM  

सहेजती हूँ इन बिखरे मोतियों को
कि पिरो कर ही कोई माला बना दूँ
आंखों में पानी उतर आता है
कि सुईं भी पिरो नही पाती हूँ ।

bahut ghari soch ko janam diya hai
bahut badhiya likha hai
badhai
nira

shikha varshney 10/25/2013 10:44 PM  

उफ़ ये एहसास ...

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